बहुत वक़्त से सोच रहा था कि अपनी कहानियों में मृत्यु के इर्द-गिर्द का संसार बुनूँ। ख़त्म कितना हुआ है और कितना बचाकर रख पाया हूँ, इसका लेखा- जोखा कई साल खा चुका था। लिखना कभी पूरा नहीं होता... कुछ वक़्त बाद बस आपको मान लेना होता है कि यह घर अपनी सारी कहानियों के कमरे लिए पूरा है और उसे त्यागने का वक़्त आ चुका है। त्यागने के ठीक पहले, जब अंतिम बार आप उस घर को पलटकर देखते हैं तो वो मृत्यु के बजाय जीवन से भरा हुआ दिखता है। मृत्यु की तरफ़ बढता हुआ, उसके सामने समर्पित-सा और मृत्यु के बाद ख़ाली पड़े गलियारे की नमी-सा जीवन, जिसमें चलते-फिरते प्रेत-सा कोई टहलता हुआ दिखाई देने लगता है और आप पलट जाते हैं। —मानव कौल
बहुत वक़्त से सोच रहा था कि अपनी कहानियों में मृत्यु के इर्द-गिर्द का संसार बुनूँ। ख़त्म कितना हुआ है और कितना बचाकर रख पाया हूँ, इसका लेखा- जोखा कई साल खा चुका था। लिखना कभी पूरा नहीं होता... कुछ वक़्त बाद बस आपको मान लेना होता है कि यह घर अपनी सारी कहानियों के कमरे लिए पूरा है और उसे त्यागने का वक़्त आ चुका है। त्यागने के ठीक पहले, जब अंतिम बार आप उस घर को पलटकर देखते हैं तो वो मृत्यु के बजाय जीवन से भरा हुआ दिखता है। मृत्यु की तरफ़ बढता हुआ, उसके सामने समर्पित-सा और मृत्यु के बाद ख़ाली पड़े गलियारे की नमी-सा जीवन, जिसमें चलते-फिरते प्रेत-सा कोई टहलता हुआ दिखाई देने लगता है और आप पलट जाते हैं। —मानव कौल